क्यूंकि यहाँ चोट नहीं लगती

पैरों तले ज़मीन खिसक गयी,
और पाँव आसमान पर जड़ गए,
पर आदत से मजबूर, रोज़ गिरती हूँ,
मगर चोट नहीं लगती!

कोई छोटा सा बादल संभाल लेता है,
नज़रें उठाती हूँ तो ज़मीन सर के ऊपर,
एक आध पत्थर गिरती है,
मगर चोट नहीं लगाती!

यहाँ तारे साज़-ओ-सामान हैं,
और चांदनी मेहमान है,
पर तेरे दर का पता ढूँढती हूँ,
क्योंकि यहाँ पर चोट नहीं लगाती…