The Indian budget every year has always been an eagerly awaited event. For many decades, the best minds in economics, finance, tax, business and industry throng the media house to analyze the provisions shared by the Financial Minister.
Sometimes major events completely disconnected may be data points for the plans of the different powers around the world. The challenge is to discern what purpose they serve? More critically, what are we moving towards?
When the US Ambassador threatened India's "Strategic Autonomy" policy over India's friendship with Russia - much more than meets the eye was at stake. Let us unpack how the Ukraine war has fundamentally changed the US and the world. And why are we here anyway?
यह संवाद श्रीमती मृदुल किर्तिजी के साथ प्रवासी दुनिया वेबसाइट में छपा था | म्रिदुल्जी के उत्तर उनके स्वच्छ और गहरे अंतरतम का परिचय हैं | म्रिदुल्जी का काव्य इश्वरिये प्रसाद है | इतने सारे ग्रंथों को काव्य रूप में अनुवाद करना आसान कार्य नहीं होता, इस लिए उनका सहस और कृतित्व अद्वितीय रहेगा |
भारतीय वाड्मय के काव्यानुवाद का जो कार्य श्रीमती मृदुल कीर्ति ने किया है वह अद्भुत है। भारतीय वाड्मय के ज्ञान के महासागर से अमर सूत्रों को हिंदी काव्य की सरिता में पिरोना बड़ी चुनौती थी । इन्हो्ने उसे ही जीवन का ध्येय बना लिया । जिस अनुवाद को ही करना कठिन था उसका काव्यानुवाद कर दिया जाए यह मन और ह्दय की सात्विकता, संवेदनशीलता और ज्ञानपरकता मांगता था। मृदुल जी की काव्य रचनाएं उन सभी कसौटियों पर प्रस्तुत चुनौतियां का सामना करती हुई अपने लक्ष्य के प्रति समर्पित हैं। उनका हर शब्द एक सूत्र हैं , एक संस्कार है .। प्रस्तुत है – ऐसी विदुषी महिला का प्रवासी दुनिया को दिया गया एक साक्षात्कार-
प्रश्न – आपको यह विचार कब और कैसे आया कि भारतीय संस्कृति के मूल ग्रंथों का अनुवाद किया जाए ?
उत्तर – जगत के सारे परिणाम मनोमय ही हैं, क्योंकि सब कुछ पहले हमारे मन में, अंतस में घटित होता है बाद में प्रस्फुटित होता है. मन ही तो कर्मों का उदगम स्रोत्र है और ऐसे संकल्पित मन के आधार प्रारब्ध व् संस्कार होते हैं. देखो–भीतर क्या हो रहा है वही तुम्हारे मन की सच्चाई है. चूँकि हम भोक्ता भाव प्रधान है, तो जो भी रुचिकर लगता है, वहीँ ठहर कर इन्द्रियां भोगने लगती हैं. इस वस्तुगत से आत्मगत होने में, मैं केवल प्रारब्ध और संस्कारों को ही इसका श्रेय देती हूँ. वरना मेरी कहाँ कोई विसात है कि इतने ग्रंथों के काव्यानुवाद का संकल्प ले सकूं या विचार भी कर सकूं.
हाँ, इस सन्दर्भ में वह दिन अवश्य ध्यान आता है, जब वेदों पर शोध कार्य के अनंतर चारों ही वेद खुले रहते थे. ७ जनवरी १९८५ को सामवेद के पृष्ठ पलट रही थी. पहले पृष्ठ पर , पहले मन्त्र पर मन जुड़ सा गया , कई बार पढ़ा तो स्वयं ही अनुवादित हुआ, पहले टाल गयी, पुनः-पुनः स्फुरण हुआ. लिखा तो एक-एक कर सात मन्त्रों का कुछ ही मिनटों में अनुवाद हुआ. फिर तो जैसे एक सात्विक उन्माद में ही मन रहने लगा. कब घर का काम पूरा हो और कब लिखूं की अवस्था आगई. जब लगा कि काम तो अंतहीन हैं, तो किचन में ही सामवेद को रख लिया और मन्त्रों को कई-कई बार पढ़कर हृदयंगम करती. मन ही मन काव्यबद्ध हो जाता तो तत्क्षण वहीँ लिखती . यहाँ से हाथ से काम, हृदय से राम की यात्रा आरम्भ हुई.
जो आज तक परमात्मा की कृपा से चल रही है. १९८८ में १७ मई को राष्ट्रपति आर.वेंकटरमण ने सामवेद के काव्यात्मक अनुवाद का विमोचन राष्ट्रपति भवन में किया.
प्रश्न – इनके प्रेरणा के मूल में कौन था?
उत्तर – वास्तविकता तो यह है कि यह प्रयास नहीं प्रसाद है, श्रम साध्य नहीं कृपा साध्य है.
कौन देता लेखनी कर में थमा ,
कौन फिर जाता ह्रदय तल में समा?
कौन कर देता है उन्मुख चित्त को संसार से,
कौन तज निःसारता मुझको मिलाता सार से?
कौन भूमा तक मेरे मन मूल को है ले चला ,
कौन गह कर बाँह जग से तोड़ता है शृंखला ?
व्यक्ति तीन तरह से संस्कारित होता है. अपने प्रारब्ध, माता-पिता से मिले अनुवांशिक अणु-वैचारिक परमाणु और परिवेश अथवा वातावरण. मेरे पिता डॉ.सुरेन्द्र नाथ बेहद सौम्य,सज्जन और सात्विक वृत्ति के थे. अपने समय के बहुत ही सिद्ध डॉ.थे और उनको पीयूष पाणी (हाथों में अमृत) की उपाधि मिली थी. मेरी माँ परम विदुषी थी. आर्य महिला प्रतिनिधि सभा की अध्यक्षा, नियमित ध्यान सुबह और शाम, चाहें ट्रेन में हो या कहीं और सुख या दुःख किसी परिस्थित को बहाना बना कर ध्यान की नियम बद्धता भंग नहीं की. बरेली के प्रतीक्षालय में ध्यान करते हुए ही प्राण ब्रह्म रंद्र से निकले. जब मेरी सहेलियां खेलतीं उस समय मुझे कल्याण या उपनिषद नियम से पढने होते थे. मेरे अरुचि पर माँ कहतीं ——-
तुलसी अपने राम को, हीज भजो या खीज,
भूमि परे उपजेंगें ही, उलटे सीधे बीज.
कदाचित वही चरितार्थ हुआ कि ह्रदय में पड़े बीजों का अंकुरण अब हुआ. दरवाजों के छेदों से आपने सुबह देखा होगा कि सूर्य की किरणों के साथ धूल के कण भी उड़ते है. उनको मैं मुठ्ठी में बंद कर खेलती थी. तब माँ कहती कि य़े अणु अणियाम, महत महियाम है. यही आत्मा का स्वरुप जब उपनिषदों में अनुवाद के अनंतर पढ़ा तो जाना कि धन्य थे मेरे माँ-पिता तो धूल के कणों से भी आत्म ज्ञान दे गए. अतः मेरी प्रेरणा के मूल में य़े तीनों ही तत्व कारण थे.
प्रश्न – आपकी शिक्षा आदि कहाँ हुई और संस्कृत पर तो आपने विशेष ही शिक्षा ली होगी?
उत्तर – इन दोनों ही प्रश्नों के उत्तर कुछ सामान्य से हट कर ही हैं. जब १२ साल की थी पिता और १५ साल की थी तो माँ दोनों ही ब्रह्म लीन हो गए थे और किन्हीं कारणों से न तो प्रारम्भिक ना ही बाद की शिक्षा तरीके से हुई. सारी पढ़ाई प्राइवेट विद्यार्थी की तरह ही की. शोध कार्य शादी के बाद किया जब मेरा बेटा हाई स्कूल में था. संस्कृत सामान्य रूप से जो किताबों में थी बस वही है, लेकिन जब मैं आज भी ग्रंथों को पढ़ती हूँ तो मुझे लगता है यह सब तो मेरा पढ़ा हुआ है, अतः सरलता से अनुवाद हो जाता है. लेकिन आप यदि संस्कृत का अलग से कुछ पूछे तो मैं नहीं बता सकती हूँ. यह मेरे पूर्व जन्म का छूटा काम है.
प्रश्न – इतने क्लिष्ट विषयों में सरसता का स्रोत्र क्या है ?
उत्तर – ईश्वरीय ज्ञान और वाणी में माधुर्य भी तो उसी का ही है. वाणी, ज्ञान, बुद्धि,शब्द ब्रह्म क्षेत्र के विषय नहीं, वह कृपामय अनुभूति का विषय है और अनुभूति बन कर ही उतरता है. वहाँ तो केवल माधुर्य का आभास हैं, वही सरसता का स्रोत्र है. जिसमें आंतरिक तृप्ति है तथा और अधिक पाने की प्यास निरंतर रहती है. प्यास और तृप्ति एक साथ चलें तो प्रेम जीवंत रहता है.
प्रश्न – इस तापसी प्रवज्या में साधक या बाधक कौन था?
उत्तर – यह आंतरिक ऊर्जा का वह सात्विक क्षेत्र है जो विजातीय परमाणुओं को प्रवेश ही नहीं देता. vedo ना तो कोई अनुवाद करवा सकता है और ना ही करते हुए को कोई रोक सकता है.
साधक प्रभु की अनुकम्पा और दिव्य कृपा थी, बाधक परिवेश थे. संकेत में कह सकती हूँ कि पंखों में पत्थर बंधे थे किन्तु संकल्प व्योम के पार जाने का था. संयुक्त परिवार में समता से कहीं अधिक विषमताओं का का गहरा जाल था. जहाँ इस तरह के कामों का ना मान था ना मान्यता. संवेदनशील होने के कारण जड़ अहंता मुझे बहुत क्लेश भी देती थी. लेकिन जब आप सात्विकता प्रवृत्त होते हैं तो आपके पंचभूत हलके हो जाते हैं, तो परिवेश के विरोध बाहर ही रह जाते हैं. वैसे भी——-
सरहदें देह की है बिना देह का मन , जिसे चाहता है वहीँ पर रहेगा.
कि तन एक पिंजरा जहाँ चाहें रख लो, कि मन का पखेरू तो उड़ कर रहेगा.
अक्षरानाम अकारो अस्मि ——गीता
लिखती मैं हूँ लिखाता कोई और है, सोती मैं हूँ सुलाता कोई और है —उसी और में ठौर पाया तो और कोई क्या करेगा?
प्रश्न – गृहस्थ में रह कर इतने कर्तव्यों का निर्वहन करने के बाद यह सब कैसे संभव हुआ?
उत्तर – जब मन को कोई सात्विक दिशा मिल जाती है तो सच कहूं तो एक उन्माद सा छाया रहता है—-एक अनुभूत चित्त दशा.
जिसकी अभिव्यक्ति शब्दों में उतर कर आती है. कर्तव्यों के प्रति सामान्य से कहीं अधिक सजगता और कर्तव्यनिष्ठता स्वयं आती है. मनुष्य एक जैविक जटिल संरचना है. जिसकी बाहर की परत अन्नमय, दूसरी मनोमय, जिस पर मन का साम्राज्य है–जो आनंदमय तक जाता है. घर का काम, बड़ों के प्रति कर्तव्य, बच्चों का पालन पोषण, पढाई और भी अनेकों सुख-दुःख , सब मिला कर बहुत काम था. अहंता को झेलने के लिए मानसिक और सहन शक्ति भी चाहिए थी. सब मिला कर कह सकते हैं कि हम परिस्थितियां तो नहीं बदल सकते थे अतः मनः स्थिति बदल ली. कुछ समस्याओं के समाधान होते ही नहीं, उनको वैसा ही प्रारब्ध समझ कर स्वीकार करना चाहिए.
प्रश्न – रसोई घर से राष्ट्रपति भवन तक की यात्रा, वह भी तीन बार, इन सबके पीछे कौन सी शक्ति थी?
उत्तर – वेदों पर शोध के अनंतर एक मंत्रणा थी कि ‘राजा का कर्तव्य है कि वैदिक साहित्य को महत्त्व देने वाले साहित्य को प्रोत्साहित और पुरस्कृत करे’. बस यह बात मेरे मन में जम सी गयी कि ‘सामवेद का काव्यात्मक अनुवाद’ भी तो राष्ट्रीय महत्त्व का वैदिक ग्रन्थ है. राष्ट्रपति भवन तक कैसे तक कैसे पहुँची , यह एक लम्बी और दूसरी कहानी है. मेरे बच्चों ने मेरा बहुत ही अधिक साथ और सहयोग दिया, इसके लिए अंतस से आशीष निकलता है. कह सकती हूँ कि प्रभु कृपा और लगन ही राष्ट्रपति भवन तक ले गयी.
जब तक मन को बात न लगती, लगन नहीं बन पाती है.
चुभी बात ही शक्ति बनकर , कालीदास बनाती है.
सामवेद का काव्यात्मक अनुवाद–का विमोचन राष्ट्रपति श्री आर.वेंकट रमन जी ने किया.
ईशादी नौ उपनिषदों का काव्यानुवाद – का विमोचन राष्ट्रपति श्री शंकर दयाल शर्मा जी ने किया .
नौ उपनिषद ईश,केन,कठ,प्रश्न,मुण्डक,मांडूक्य,एतरेय,तैत्तरीय और श्वेताश्वर .
श्रीमद भगवद गीता –का ब्रज भाषा में काव्यात्मक अनुवाद — प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी बाजपेयी जी ने विमोचन किया
अष्टावक्र गीता –का गीतिका छंद में काव्यानुवाद .
पातंजलि योग दर्शन का काव्यात्मक अनुवाद —-चौपाई छंद में रामायण की तरह –का विमोचन स्वामी रामदेव ने अमेरिका में किया.यह विश्व का सर्व प्रथम काव्यानुवाद है. इसकी सी .डी बन चुकी है.
वैदिक संध्या –काव्य रूप में गेय .
शंकराचार्य साहित्य —–दक्षिण से उत्तर में, काव्य में लाने में प्रयासरत .
प्रश्न – आपके शोध का विषय क्या था ?
उत्तर – वेदों में राजनैतिक व्यवस्था’ — शोध का विषय है. वेदों में स्वस्थ प्रजातंत्र की पुष्टि और आदर्श राजनीतिक व्यवस्था जो आज के समकालीन युग के लिए आवश्यक आवश्यकता है. चारों वेदों के सामाजिक और राजनैतिक तत्वों और पक्षों का समीकरण है. आज के लिए सर्वाधिक व्यवहारिक है, इसको पुष्ट किया है.
प्रश्न – कुछ बचपन के बारे में बताएं, कोई महत्वपूर्ण घटना जिसने जीवन में कोई छाप छोड़ी हो?
उत्तर – ’बचपन’ शब्द में जो मधुर क्षण या स्मृतियाँ समाई रहती हैं, वे सब मुझे परी लोक की या कहानियों की बातें लगती है. तितलियों की उड़ान या फूलों की मुस्कान जैसा कुछ भी नहीं था. यथार्थ के धरातल पर तो बचपन रूठा हुआ था, कारण कि जब एक साल की थी तो कुछ ही अंतराल से दो भाई नहीं रहे. अथाह दुःख से माँ-पिता विक्षिप्त से हो गए. माँ को कैंसर और पिता को मधुमेह हो गया. पैर में जूते ने काट लिया जो मधुमेह के कारण ठीक ही नहीं हो रहा था तो पैर काटना पड़ा फिर भी ठीक ना होने पर फिर कटा , तीसरी बार फिर कटा –उस इलेक्ट्रिक आरी की आवाज़ जो ओ. टी. से आ रही थी . जस की तस आज भी सुनाई देती है. पिता के प्रयाण के समय घुटने से ऊपर तक पैर कट चुका था. माँ भी कैंसर के ऑपरेशन के बाद भी नहीं बचीं . जब मेरे साथी खेलते थे तो उस आयु में अस्पताल के चक्कर या उनकी देख -रेख करती थी.
आज लगता है कि प्रकृति की यह व्यवस्था आने वाले विषम जीवन की मनो भूमि या नीव ही थी क्योंकि ऊँचें भवन की नीव भी तो गहरी होती है. सुख मिले तो प्रभु की दया है, कष्ट मिलें तो उसकी कृपा है दर्द की अपनी दीप्ति होती है.. आगे जो भी मिला कृपा साध्य ही सिद्ध हुआ. कह सकती हूँ कि दुःख में ही मेरी सुप्त शक्तियां और चेतना जाग्रत हुई.
प्रश्न – आपकी शिक्षा कहाँ हुई और यह वेदों के शोध कार्य तक कब और कैसे पहुँची?
उत्तर – पढाई का बचपन की परिस्थिति और पृष्ठ भूमि से गहरा सम्बन्ध होता है. जैसा कि अभी बताया है, कुछ भी सहज और सरल नहीं था. मैं बहुत सी प्रतिभाओं और विभूतियों की जीवनी पढती हूँ तो स्वयं को ज्ञान से वंचित पाती हूँ क्योंकि मैं कभी किसी स्कूल या विद्यालय या महाविद्यालय में नियमित नहीं पढी हूँ. प्राइवेट ही सब किया. शोध कार्य, जब मेरा बेटा हाई स्कूल में था तब किया. सबसे अधिक परिश्रम शोध में ही लगा, मानसिक भी और शारीरिक भी. मेरे पिता डॉ.थे तो सोचती थी डॉ. की बेटी. डॉ. ही तो होगी . अपने आप ही अपने नाम के आगे डॉ. लगाना बहुत अच्छा लगता था. अंतर्मन में दबी आकांक्षा पूरी हुई. विषय मेरी रूचि का था , इसी के अनंतर अनुवादों की प्रेरणा मिली. फिर तो वेद-वेदान्तों ,गीता ,अष्टावक्र , योग दर्शन आदि के सूत्र जुड़ते गए.
प्रश्न – इन अनुवादों के माध्यम से आप क्या तथ्य और ऋषियों के क्या सन्देश देना चाहती हैं?
उत्तर – वेद- वेदान्त ईश्वरीय वाणी और सन्देश हैं. तत्वमसि —-सामवेद , अहं ब्रह्मास्मि ——यजुर्वेद, अयमात्मा ब्रह्म —-अथर्वेद और प्रज्ञानं ब्रह्म——-ऋग्वेद . चारों ही वेद का सार जीव और ब्रह्म में एक्य की पुष्टि है. पृथकता अज्ञान, माया,आसक्ति, मोह, राग,लोभ,लालसा के कारण ही है , जिससे आज सब कुछ विकारी हो गया है.
वेदों की ऋचाएं बुद्धि वैभव नहीं,अपितु सृष्टि के आधार भूत प्रकृति के नियमों का स्पंदन हैं. ऋषियों ने ब्राह्मी चेतना में इन स्पंदनों का आभास किया है और छंदों में गाया है.इन महा ग्रंथों को एक वाक्य में कहूं तो—–
वेद —मनुर्भव , उपनिषद् ——-त्यक्तेन भुंजीथा , गीता——–निष्काम कर्म योग , अष्टावक्र गीता ——-निर्जीव रहनी, निर्बीज करनी,—–पातंजलि योग दर्शन —–योगश्चित्तवृत्ति निरोधः का सन्देश देते है.
मनुष्य को अपने उद्धार के लिए तीन प्रकार की शक्तियां प्राप्त हैं.
करने कीशक्ति–(बल) संकल्प प्रधान , जानने की शक्ति (ज्ञान) मेधा प्रधान और मानने की शक्ति (विश्वास) भावना,श्रद्धा. .इन्द्रियां मन में, मन बुद्धि में और बुद्धि परमात्मा में लीन कर दो. आत्म ज्ञान होते ही सब घटित होने लगता है क्यों कि किनारे पर आकर बड़ी-बड़ी लहरों के अहंकार भी शिथिल हो जाते है. यह बहुत बृहत विषय है.
प्रश्न – वेदों, उपनिषदों का कौन सा सूक्त और कौन सा अनुवाद आपको सबसे अधिक मनोहारी लगता है?
उत्तर – अविदित ब्रह्म को विदित होना ही वेद है.
मुझ अकिंचन की क्या बिसात जो ईश्वरीय वाणी का वर्गीकरण कर सकूं? वेदों उपनिषदों का एक-एक मन्त्र जीवन और जगत का रूपांतरण कर सकता है, हाँ कुछ सूक्त हैं जो दृढ़ता से मैनें थामे है. वेदों का ‘इदन्न मम’ और ‘शिव संकल्प मस्तु’
उपनिषदों का’ त्यक्तेन भुंजीथा’ गीता का ‘मामेकं शरणम् ब्रज’. अनुवाद ‘कठोपनिषद’ का बहुत ही मनोहारी लगता है.
प्रश्न – एक के बाद एक इतने महाग्रंथों का काव्यानुवाद , सहसा विश्वास नहीं होता और स्वयं ही यूनी कोड में टाइप भी किया
उत्तर – गृहस्थ्य में सच में यह दुष्कर था, किन्तु चेतना यदि एक बार चैतन्य से जुड़ जाए तो बाहर सब प्रपंच सा लगता है, आँखों में जैसे एक्सरे लग गया हो , सत्य उभर कर आ जाता है.
जगत को सत मूरख नहीं जाने
दर-दर फिरत कटोरा लेकर मांगत नेह के दाने
बिन बदले उपकारी साईं , ताहि नहीं पहचाने.
एक सात्विक उन्माद और अनुभूति .
कम्प्यूटर मेरी ६ साल की नतिनी प्रिया ने सिखाया , वरना ग्रन्थ कभी टाइप नहीं कर सकती थी और मेरे बच्चों ने बहुत सहयोग दिया . प्रकाशन और विमोचन बच्चों के ही प्रयास से संभव हुए.
प्रश्न – ग्रंथों की क्लिष्टता के कारण कहीं न कहीं तो आपको रुकना ही होता होगा, तब आप क्या करती थी?
यह सच है कि बहुत बार बहुत क्लिष्ट सूक्त आते थे , सामवेद में ही १८७५ मन्त्र है. तो उनको छोड़ देती थी. कभी अगले प्रवाह में या कभी सुषुप्ति में सटीक शब्द आ जाता था. इसीलिये आज भी पेन डायरी लेकर ही सोती हूँ किन्तु कभी किसी से पूछा नहीं. एक और बात मैं कभी क्रम से नहीं लिखती .
प्रश्न – अनुवादों के तदन्तर या बाद में आप अपने अन्दर क्या परिवर्तन अनुभव करती है.?
परिवर्तन छोटा शब्द है , पूरा ही रूपांतरण हो गया. जगत में तैरने की सी स्थिति है, किनारा आते ही नाव छोड़ दी जाती है, नाव से कोई मोह नहीं होता. अब सब होता है पर अन्दर कुछ नहीं होता. मौन बहुत रुचिकर लगता है. परिणाम की इच्छा छूट गयी, इच्छा का परिणाम आ गया. जगत केवल संचित,प्रारब्ध और क्रियमाण कर्मों के चक्र व्यूह हैं, जिनमें अनायास ही बिना सिखाये प्रवेश तो आता है पर निष्क्रमण को जन्म जन्मान्तर लग जाते है.
प्रश्न – आज के भौतिकवादी परिवेश में इनका महत्त्व और जन सामान्य से इनके ग्राह्यता के विषय में कुछ कहें.
उत्तर – जब साधक मन और बुद्धि से ऊपर उठ कर उनके साथ तदरूप हो जाता है, तब इच्छाओं का निर्माण बंद हो जाता है. ऐसा अभ्यास करिए कि शरीर का यंत्र बिना हम पर कोई छाप छोड़े ही काम करता रहे. चित्त यदि मन से भरा है तो पूरा संसारी है. संस्कृति और संस्कार पुस्तकों के विषय नहीं, व्यवहार के विषय है. आप अच्छा खाते है, अच्छा पहनते है तो अच्छा सोचते क्यों नहीं? अहं की टिघलन विकारों को कम करती है, दुःख को तप बना लो, सुख को योग बना लो. उधार का रहना छोड़ कर अब से अपने हो जाओ. जिससे मरना ना छूटे उसे लेकर क्या करना है. सामान कम रखो , यात्रा सुखद रहेगी. यह कुछ सूक्त है सकारात्मक जीवन के सों कह दिए . मैं किसी को उपदेश देने के योग्य कदापि नहीं . मैं तो स्वयं ही पथ गामी हूँ भटक गयी तब ही तो जगत में हूँ . जगत की परिभाषा ही है. ज –जन्मते, ग–गम्यते इति जगतः
कोई एक अनुवाद का प्रारूप बताएं
पूर्णमदः पूर्णमिदम , पूर्णात पूर्ण मुदच्यते ,
पूर्णस्य पूर्ण मादाय , पूर्ण मेवावशिष्यते .
अनुवाद हरि गीतिका छंद में.
परिपूर्ण पूर्ण है पूर्ण प्रभु , यह जगत भी प्रभु पूर्ण है ,
परिपूर्ण प्रभु की पूर्णता से, पूर्ण जग सम्पूर्ण है.
उस पूर्णता से पूर्ण घट कर पूर्णता ही शेष है,
परिपूर्ण प्रभु परमेश की , यह पूर्णता ही विशेष है.
सम्पूर्ण ग्रंथों के अनुवाद देखने के लिए
अन्य देशों में जाकर जिज्ञासुओं को सुनाने की उत्कंठा है. जब सर्वोच्च सत्ता के विधान में होगा तब ही संभव है.
World is changing. So is global consciousness. As people in areas ruled by Abrahamic belief systems reject their faiths and seek meaning to life afresh, the ancient gods are rising again.
Greater India was once a Civilizational Entity that engaged via Cultural Embrace. Shri Ram was the greatest ambassador. Over time bonds loosened and India's civilization trampled upon. That is being restored with Ram Mandir prana prathishtha.
The last few months have been busy for Alien and UFO enthusiasts. Many hearings, announcements, and information have come out. How is Alien interaction impacting the world and humanity? Are we headed for disaster or collective bliss?
What is Success? What brings us Happiness? And once we know what it is, then how to succeed? We begin the new year 2023 with an honest look at these questions.
Every Sunday AM (US Time)/ PM (India time), we send out a weekly detailed newsletter. We also share other insightful notes during the week. Its free. Do sign up and share with friends!